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राजा होने का प्रतीक राजदंड

राजशाही में राजा का मुकुट, सिंहासन, राज मुद्रा व राजदंड किसी भी राजा के राजा होने का प्रतीक रहे हैं। इतिहासकारों के अनुसार चोल शासकों ने सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रुप में राजदंड का प्रारम्भ किया था। उस दौर से अंग्रेजी हुकूमत के दौर तक अनेकों राज घरानों का अस्तित्व बना और बिगड़ा। अनेकों दौर आए और चले गए। अनेकों सल्तनतें जीती गई या हस्तांतरित की गई परंतु इस सब के बीच राजा के मुकुट, सिंहासन, राज मुद्रा व राजदंड का चलन बरकरार रहा।

भारत की स्वाधीनता से पूर्व यहां अंग्रेजों का राज था जो मूल रुप में एक राजशाही थी हालांकि कई बार अपनी सत्ता संचालन में अंग्रेजी राजघराने ने लिब्रल होते हुए या फिर यूं कहा जा सकता है कि अपनी कमजोर पड़ती पकड़ के चलते गुलाम देशों में भी लोकहित व सामुहिक नेतृत्व को तरजीह दी जिसके चलते भारत में भी अंग्रेज प्रतिनिधियों के माध्यम से सरकारी नीतियों को लागू करने में भारतीयों की मदद ली किंतु राजशाही के प्रतीक राजा का मुकुट, सिंहासन, राज मुद्रा व राजदंड का प्रभाव बदस्तुर जारी रहा तभी तो 15 अगस्त 1947 को सत्ता हस्तांतरण के समय ‘एग्रीमेंट फॉर ट्रांसफर अॉफ पावर’ सम्पादित करने के साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चयनित प्रतिनिधि पं. जवाहर लाल नेहरु को ब्रिटेन की महारानी के द्वारा सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक बन चुके राजदंड को भी सौंपा। जिसे कभी भी स्वतंत्र भारत की सरकार ने सत्ता का प्रतीक नहीं बनाया और बाद में उसे संग्रहालय में रख दिया गया।

भारत में सत्ता का प्रतीक सारनाथ के लौह स्तम्भ पर उकेरी गई तीन सिंहों की आकृति के साथ अशोक चक्र को बनाया गया। भारत के राष्ट्रीय ध्वज के मध्य में भी अशोक चक्र विराजमान है।

आजादी के बाद भारत ने लोकतंत्र को सत्ता संचालन का माध्यम चुना और सत्ता देश के नागरिकों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में आई। और इस प्रकार देश में राजदंड की उपयोगिता नहीं रही, न ही भारत के संविधान अथवा किसी कानून की किताब में इसका जिक्र मिलता है।

आजादी के 75 वर्ष बाद जब भारत में लोकतंत्र, सत्ता और जन शक्ति का केन्द्र बिंदु है ऐसे में सेंगल नामी राजदंड का अचानक से प्रकट हो जाना विस्मय करता है। खास तौर से उन परिस्थितियों में जब कहा जा रहा हो कि इसे नव निर्मित संसद की आसंदी के पास रखा जाएगा। वह भी तब जब लोकतंत्र के केन्द्र बिंदु और गरिमा के आधार संसद भवन के उद्घाटन अथवा लोकार्पण या यूं कहें कि सत्ताधारी दल के ग्रह प्रवेश के अवसर पर लोकतंत्र और संसद भवन के स्वामी, महामहिम राष्ट्रपति को ही इस भव्य कार्यक्रम में आमंत्रित न किया गया हो। सवाल यह भी उठता है कि ऐसा राजदंड सत्ता का प्रतीक होगा अथवा राज द्वारा गाहे बगाहे अथवा मनमाने दंड का। वैसे भी ‘बुल्डोज़र’ भी आजकल वर्तमान सत्ता का प्रतीक नजर आ रहा है। न्याय करने वाली संस्थाओं से भी अधिकार छीनकर सत्तापक्ष स्वयं दंड निर्धारित कर रहा हो तो निश्चित रुप से राजदंड के अर्थ भी बदल जाते हैं।

आशा की जाती है कि भारतीय लोकतंत्र के स्वरुप को विकृत होने से बचाने के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष सभी मिल जुलकर माकूल उपाय करेंगे ताकि भारत में लोकतंत्र चिरस्थाई हो सके। जय हिंद।